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मुनि के लिए शम (समत्व ) कारण कहलाता है । ध्यानादि योग में तथा मन की शुद्धि में आरूढ़ होने के लिए मुनि को सत्क्रिया–कर्मरूपी कारण जरूरी है, ऐसा योगीश्वरों ने कहा है, परन्तु वही साधक जब योगारूढ़ हो जाता है (ध्यानादियोग को प्राप्त हो जाता है) तब उसे शम की ही अपेक्षा रहती है । क्योंकि शमभाव में ही योगारूढ़ दशा स्थिर रहती है ॥२२॥ यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्यते । सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥ २३ ॥
भावार्थ : जब साधक इन्द्रियों के विषयों में तथा कर्मों में आसक्त नहीं होता, तब वह सर्वसंकल्पत्यागी योगी योगारूढ़ कहलाता है ॥२३॥
ज्ञानं क्रियादिहीनं, न क्रिया वा ज्ञानवर्जिता । गुणप्रधानभावेन दशाभेदः किलैतयोः ॥२४॥
भावार्थ : क्रिया से रहित ज्ञान ज्ञान नहीं है, और ज्ञान से वर्जित क्रिया भी क्रिया नहीं है । परन्तु इन दोनों में गौणता और मुख्यता को लेकर अवस्था (दशा) का भेद है ||२४|| ज्ञानिनां कर्मयोगेन चित्तशुद्धिमुपेयुषाम् । निरवद्यप्रवृत्तीनां ज्ञानयोगौचिती ततः ॥ २५ ॥
भावार्थ : इसलिए निरवद्य प्रवृत्ति वाले तथा कर्मयोग से चित्त की शुद्धि को प्राप्त करने वाले ज्ञानियों के लिए ज्ञानयोग का औचित्य है ॥२५॥
अधिकार पन्द्रहवाँ
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