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भावार्थ : अप्रमत्त साधुओं के लिए आवश्यक आदि क्रियाएँ भी नियमितरूप से करनी नहीं होती (उनके लिए प्रतिबन्ध नहीं); क्योंकि वे ध्यान से ही शुद्ध होते हैं । यह बात अन्यदर्शनी लोगों ने भी निम्नोक्त प्रकार से कही है ॥७॥ यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥८॥
भावार्थ : जिस व्यक्ति की आत्मा में ही प्रीति है, जो आत्मा में ही तृप्त है और आत्मा में ही सन्तुष्ट है, उसके लिए कुछ भी कर्त्तव्य नहीं होता ॥८॥
नैवं तस्य कृतेनाऽर्थो नाकृतेनेह कश्चन । न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥९॥
भावार्थ : क्योंकि इस संसार में उस पुरुष के करने से या न करने से कोई प्रयोजन नहीं है । उसे सर्वभूतों के प्रति उसके कुछ भी स्वार्थ का आलम्बन ( सम्बन्ध ) नहीं है ॥ ९ ॥ अवकाशो निषिद्धोऽस्मिन्नरत्यानन्दयोरपि । ध्यानावष्टभ्भतः क्वाऽस्तु तत्क्रियाणां विकल्पनम् ॥१०॥
भावार्थ : इस ज्ञानयोग में अरति और आनन्द अवकाश भी निषिद्ध है । क्योंकि ध्यान के आश्रय (स्थिरता) के कारण उसे क्रिया करने का विकल्प (कल्पना) ही कहाँ से हो सकता
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अध्यात्मसार