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आवश्यकादिरागेण वात्सल्याद् भगवगिराम् । प्राप्नोति स्वर्गसौख्यानि न याति परमं पदम् ॥४॥
भावार्थ : आवश्यकादि क्रिया के प्रति (शुभ) राग एवं भगवद्वाणी के प्रति वात्सल्य होने से (कर्मयोग से) साधक देवलोक के सुख पाता है, लेकिन ऐसा साधक मोक्षपद नहीं प्राप्त करता ॥४॥ ज्ञानयोगस्तपःशुद्धमात्मरत्येकलक्षणम् । इन्द्रियार्थोन्मनीभावात् स मोक्षसुखसाधकः ॥५॥
भावार्थ : जब एकमात्र आत्मा में ही प्रीति (रुचि या श्रद्धा) हो, तथा इन्द्रियों के विषयों से उन्मनीभाव उत्पन्न होता है, तब शुद्धतप होता है, और वही ज्ञानयोग है, जो मोक्षसुख का साधक है ॥५॥ न परप्रतिबन्धोऽस्मिन्नल्पोऽप्येकात्मवेदनात् । शुभं कर्माऽपि नैवाऽत्र व्याक्षेपायोपजायते ॥६॥
भावार्थ : इस ज्ञानयोग में सिर्फ आत्मा का ही ज्ञान (वेदन) होता है, इसलिए दूसरे (पर) का प्रतिबन्ध जरा भी नहीं होता; क्योंकि ज्ञानयोग में शुभकर्म (क्रिया) भी व्याक्षेप (आत्मध्यानभंग) के लिए नहीं होता ॥६॥ न ह्यप्रमत्तसाधूनां क्रियाऽप्याश्यकादिका । नियता ध्यानशुद्धत्वाद् यदन्यैरप्यदः स्मृतम् ॥७॥ अधिकार पन्द्रहवाँ
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