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भावार्थ : यह रत्नत्रय (मोक्षोपायभूत) ही संसार के कारण (हेतु) रूप रागद्वेषादि के प्रतिपक्षी शत्रुरूप हैं । अतः वे त्रिरत्न उस संसाररूप कार्य के विपक्षी-शत्रुरूप मोक्ष के कारण हैं, घूम-फिरकर यही बात युक्तिसंगत लगती है ॥८३।। अथ रत्नत्रयप्राप्तेः प्राकर्मलघुता यथा । परतोऽपि तथैव स्यादिति किं तदपेक्षया ॥८४॥
भावार्थ : जैसे रत्नत्रय की प्राप्ति से पहले भी कर्मों का लाघव (हल्कापन) किसी भी अन्य साधन से हो जाता है, इसके अनुसार मोक्ष का भी अन्य कोई साधन (उपाय) हो सकता है। अतः रत्नत्रय की ही अपेक्षा इसके लिए क्यों रखी जाय? ॥८४॥ नैवं पूर्वसेवैव मृद्वी नो साधनक्रिया। सम्यक्त्वादिक्रिया तस्माद् दृद्वैव शिवसाधने ॥८५॥
भावार्थ : पूर्वसेवा (आदि) ही मोक्ष का साधन नहीं हो सकती है, क्योंकि वह कोमल है। इसलिए वह मोक्षसाधन की क्रिया नहीं हो सकती । मोक्षसाधन के लिए तो सुदृढ़ सम्यक्त्वादि क्रिया ही समर्थ व उचित है ॥८५।। गुणाः प्रादुर्भवन्त्युच्चैरथवा कर्मलाघवात् । तथाभव्यतया तेषां कुतोऽपेक्षानिवारणम् ॥८६॥
भावार्थ : तथाभव्यत्व से अथवा कर्मों के लाघव (अल्पता) से अत्यन्त तीव्रता से गुण प्रगट होते हैं, अतः उसकी अपेक्षा को क्यों ठुकराते हो? ॥८६।। १५८
अध्यात्मसार