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गुरुप्रसादीक्रियमाणमर्थं गृह्णाति नासद्ग्रहवांस्ततः किम् ? द्राक्षा हि साक्षादुपनीयमानाः क्रमेलकः कंटकभुङ्न भुंक्ते ॥१०॥ भावार्थ : गुरु : गुरु के द्वारा प्रसादरूप में दिये हुए अर्थ को दुराग्रही मनुष्य ग्रहण नहीं करता, इसमें (गुरु का ) क्या दोष? काँटे चबा जाने वाले ऊँट के सामने अंगूरों का ढेर लाकर रख दिया जाय, फिर भी वह नहीं खाता तो इसमें दोष किसका है ? ॥१०॥ असद्ग्रहात्पामरसंगतिं ये कुर्वन्ति तेषां न रतिर्बुधेषु । विष्टासु पुष्टा किल वायसा नो मिष्टान्ननिष्ठां प्रसभं भवन्ति ॥ ११ ॥
भावार्थ : जो कदाग्रह के कारण पामर जनों की संगति करते हैं, उनकी पण्डितजनों के प्रति प्रीति नहीं होती । क्योंकि विष्टा खाकर पुष्ट बने हुए कौए कितनी ही जबर्दस्ती की जाय, मिष्टान्न खाने में रुचि नहीं रखते ॥११॥
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नियोजयत्येव मतिं न युक्तौ युक्तिं मतौ यः प्रसभं नियुक्ते । असद्ग्रहादेव न कस्य हास्योऽजले घटारोपममादधानः ॥ १२ ॥ भावार्थ : जो पुरुष कदाग्रह के कारण शुद्ध (शास्त्रीय) युक्ति में अपनी बुद्धि नहीं जोड़ता, अपितु अपनी बुद्धि में (जो बात पकड़ी हुई है, उसमें) जबरन युक्ति को ले जाता है, वह मनुष्य मृग मरीचिका में से जल भरने के लिए घड़ा रखता हुआ किसके उपहास का निशाना नहीं बनता? सबके मजाक का पात्र बनता है ॥१२॥
अधिकार चौदहवां
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