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भावार्थ : धूर्त आदमी आत्मा, परलोक और विविध प्रकार की क्रियाएँ बता (कह) कर लोगों के चित्त को भोगादि से जोरशोर से भ्रष्ट करते हैं ॥१४॥ त्याज्यास्तन्नैहिकाः कामाः कार्या नानागतस्पृहाः । भस्मीभूतेषु भूतेषु वृथा प्रत्यागतिस्पृहा ॥१५॥
भावार्थ : इसलिए इस लोक के कामभोगों के सुखों को छोड़कर भविष्य (परलोक) के सुखों की इच्छा (स्पृहा) करना उचित नहीं है; क्योंकि पंचमहाभूतों के जलकर राख हो जाने पर पुनर्जन्म-फिर से लौटकर जन्म लेने की इच्छा व्यर्थ है ॥१५॥ तदेतद्दर्शन मिथ्या, जीवः प्रत्यक्ष एव यत् । गुणानां संशयादीनां प्रत्यक्षाणामभेदतः ॥१६॥
भावार्थ : इन-इन कारणों से यह (चार्वाक का) दर्शन मिथ्या है; क्योंकि प्रत्यक्ष संशयादि गुणों के अभेद के कारण जीव (आत्मा) प्रत्यक्ष ही है ॥१६॥ न चाहं प्रत्ययादीनां शरीरस्यैव धर्मता । नेत्रादिग्राह्यतापत्तेर्नियतं गौरवादिवत् ॥१७॥
भावार्थ : अहंकार आदि की प्रतीति तो शरीर का धर्म नहीं है। क्योंकि ऐसा हो, तब तो गुरुत्व आदि की तरह नेत्रादि इन्द्रियों की ग्राह्यता की आपत्ति अवश्य होनी चाहिए ॥१७।। १३८
अध्यात्मसार