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नीलादावप्यतद्भेदशक्तयः सुवचाः कथम् ? परेणाऽपि हि नानैकस्वभावोपगमं विना ॥४१॥
भावार्थ : अनेक स्वभाव का स्वीकार किये बिना नीला, काला आदि वर्णों में बौद्ध भी अतभेद की शक्तियों का कथन किस प्रकार कर सकते हैं? ॥४१॥ ध्रुवेक्षणेऽपि न प्रेम निवृत्तमनुपप्लवात् । ग्राह्याकार इव ज्ञाने गुणस्तन्नात्र दर्शने ॥४२॥
भावार्थ : आत्मा का नित्य इक्षण करने से भी अनुपद्रव के कारण सर्वज्ञ ने प्रेम का निषेध नहीं किया । इस कारण इस बौद्धदर्शन में ग्राह्य आकार की तरह उसके ज्ञान में कोई भी गुण नहीं है ॥४२॥ प्रत्युतानित्यभावे हि स्वतः क्षणजनुर्धिया । हेत्वनादरतः सर्वक्रियाविफलता भवेत् ॥४३॥
भावार्थ : इसके विपरीत अनित्यभाव मानने से स्वतः ही क्षणिक जन्म की बुद्धि से हेतु - क्रियाफल के प्रति अनादर होगा और उससे समस्त क्रियाएँ निष्फल हो जाएँगी ॥४३॥ तस्मादिदमपि त्याज्यमनित्यत्वस्य दर्शनम् । नित्यसत्यचिदानन्दपदसंसर्गमिच्छता ॥४४॥
भावार्थ : इसलिए नित्य - सत्-चित्-आनन्द-स्वरूप मुक्तिपद का संसर्ग चाहने वाले को अनित्य ( क्षणिकवादी ) दर्शन छोड़ देना चाहिए ॥४४॥
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अध्यात्मसार