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न कर्ता, नापि भोक्तात्मा कापिलानां तु दर्शने । जन्यधर्माश्रयो नाऽयं, प्रकृतिः परिणामिनी ॥४५॥
भावार्थ : सांख्यदर्शन में आत्मा कर्ता और भोक्ता नहीं है, और आत्मा जन्य (माया) के धर्म का आश्रय भी नहीं है, परन्तु जो उसका आश्रय है, वह तो परिणाम वाली प्रकृति (माया) है ॥४५॥ प्रथमः परिणामोऽस्या बुद्धिर्धर्माष्टकान्विता । ततोऽहंकारतन्मात्रेन्द्रियभूतोदयः क्रमात् ॥४६॥
भावार्थ : धर्मादि आठ से युक्त बुद्धि ही इस प्रकृति का प्रथम परिणाम है । और उस बुद्धि से क्रमशः अहंकार, ५ तन्मात्रा, ५ इन्द्रियों और ५ महाभूतों की उत्पत्ति होती है ॥४६।। चिद्रूपः पुरुषो बुद्धेः सिद्धयै चैतन्यमानतः । सिद्धिस्तस्या अविषयाऽवच्छेदनियमान्वितः ॥४७॥
भावार्थ : उस बुद्धि की सिद्धि के लिए चैतन्यरूप प्रमाण है और अवच्छेद के नियय से युक्त चैतन्यरूप पुरुष है, अन्यथा उसकी सिद्धि अविषया है ॥४७॥ हेतुत्त्वे पुंस्प्रकृत्यर्थेन्द्रियाणामति निर्वृतिः । दृष्टादृष्टविभागश्च व्यासंगश्च न युज्यते ॥४८॥
__ भावार्थ : पुरुष को हेतुरूप में अंगीकार करने से पुरुष, प्रकृति, विषय और इन्द्रिय की अत्यन्त निर्वृति, दृष्ट, और अधिकार तेरहवां
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