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कृतिभोगौ च बुद्धश्चेद् बन्धो मोक्षश्च नात्मनः । ततश्चात्मानमुद्दिश्य कूटमेतद्यदुच्यते ॥५९॥
भावार्थ : यदि कर्तृत्व और भोक्तृत्व बुद्धि का ही हो तो बन्ध और मोक्ष आत्मा में घटित नहीं होंगे । और अगर वैसा होगा, तब तो आत्मा को लेकर जो कुछ भी कपिलादि ने कहा है, वह सब व्यर्थ हो जाएगा ॥५९॥ पंचविंशतितत्त्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे रतः। जटी मुंडी शिखी वाऽपि मुच्यते भवबन्धनात् ॥६०॥
भावार्थ : पच्चीस तत्त्वों का ज्ञाता जटाधारी, मुंडित, चोटी-धारी अथवा अन्य किसी वेष का धारक, जिस किसी भी आश्रम में रत हो, संसार के बन्धन से मुक्त हो जाता है ॥६०॥ एतस्य चोपचारत्त्वे मोक्षशास्त्र वृथाखिलम् । अन्यस्य हि विमोक्षार्थं न कोऽप्यन्यः प्रवर्तते ॥६१॥
भावार्थ : यदि उस बन्ध और मोक्ष का आत्मा में उपचार करेंगे तो समग्र मोक्षप्रतिपादक शास्त्र व्यर्थ हो जाएगा। क्योंकि दूसरे की मुक्ति के लिए दूसरा कौन प्रवृत्ति करेगा? ॥६१॥ कपिलानां मते तस्मादास्मिन्नवोचिता रतिः। यत्रानुभवसंसिद्धः कर्ता भोक्ता च लुप्यते ॥६२॥
भावार्थ : इस कारण कपिलादि के इस सांख्यमत में प्रीति करना उचित नहीं है, क्योंकि उक्त मत में अनुभवसिद्ध कर्ता और भोक्ता का लोप किया जाता है ॥६२॥ अधिकार तेरहवां
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