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भावार्थ : बौद्ध कहते हैं कि आत्मा ज्ञान के क्षणों की परम्परारूप है, वह नित्य नहीं है । आत्मा को नित्य मानने पर क्रम से या अक्रम से भी अर्थक्रिया घटित नहीं होती ॥३१॥ स्वभावहानितोऽध्रौव्यं क्रमेणाऽर्थक्रियाकृतौ । अक्रमेण च तद्भावे युगपत्सर्वसम्भवः ॥३२॥
भावार्थ : यदि आत्मा क्रम से अर्थक्रियाकारी हो तो उसके नित्यत्व-स्वभाव की हानि होगी, और इस प्रकार आत्मा में अनित्यता आ जाएगी । और यदि ऐसा कहें कि आत्मा अक्रम से अर्थक्रिया करती है, तो एकसाथ सभी क्रियाएँ होनी चाहिए; पर होती नहीं ||३२||
क्षणिके तु न दोषोऽस्मिन् कुर्वद्रूपविशेषिते । ध्रुवेक्षणोत्थतृष्णाया निवृत्तेश्च गुणो महान् ॥३३॥
भावार्थ : आत्मा को क्षणिक मानने में कोई दोष नहीं है । वह नये-नये रूप करता है । वर्तमानक्षण में अपनी उत्पत्तिक्रिया करते-करते जो रूप विद्यमान हो, उसे कुर्वद्रूप - विशेषण युक्त लक्षण से क्षणिकत्व में दोष नहीं आता । बल्कि नित्यत्वपक्ष को देखने से उत्पन्न हुई तृष्णा की निवृत्तिरूपी महागुण ही होता है ||३३|| मिथ्यात्ववृद्धिकृन्नूनं तदेतदपि दर्शनम् । क्षणिके कृतहानिर्यत्तथात्मन्यकृतागमः ॥३४॥
अधिकार तेरहवां
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