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नास्तित्वादिग्रहे नैवोपदेशो नोपदेशकः । ततः कस्योपकारः स्यात् संदेहादिव्युदासतः ॥ ४ ॥
भावार्थ : नास्तित्व आदि का आग्रह रहते हुए उपदेश और उपदेशक घटित ( उचित) नहीं होते । नास्तित्वादि के उपदेश से संदेह आदि का निराकरण होने पर किसका उपकार होगा ? क्योंकि नास्तित्ववाद के अनुसार जब श्रोता आदि ही नहीं हैं, तो वक्ता किसका उपकार करेगा ? ॥४॥ येषां निश्चय एवेष्टो व्यवहारस्तु संगतः । विप्राणां म्लेच्छभाषेव स्वार्थमात्रोपदेशनात् ॥५॥
भावार्थ : जैसे ब्राह्मणों के लिए म्लेच्छभाषा बोलने लायक नहीं है, किन्तु अपने स्वार्थ- प्रयोजनमात्र के जितना ही वे उसका प्रयोग करते हैं, वैसे ही जिन्हें निश्चयनय ही इष्ट है, उनके लिए व्यवहारनय का उपदेश संगत (अनादर करने योग्य) है ॥५॥
यथा केवलमात्मानं जानानः श्रुतकेवली ।
श्रुतेन निश्चयात्सर्वं श्रुतं च व्यवहारतः ॥६॥
भावार्थ : जैसे श्रुतकेवली श्रुत (शास्त्र) द्वारा निश्चय से केवल आत्मा को जानता है । वैसे ही व्यवहार से वह सर्वश्रुत ( आगमादि) को जानता है || ६ || ॥६॥
निश्चयार्थोऽत्र नो साक्षाद् वक्तुं केनाऽपि पार्यते । व्यवहारो गुणद्वारा तदर्थावगमक्षमः ॥७॥
अधिकार तेरहवां
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