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टूटे हुए पत्थरों की वर्षा हो रही है, एक तरफ विकृतिरूपी नदियों के संगम से उत्पन्न क्रोधरूपी आवर्त्त (भँवरजाल) दिखता है; तो ऐसे संसार - समुद्र में किसे भय उत्पन्न नहीं होता है? सर्वत्र भय ही दिखता है ॥२॥
प्रिया ज्वाला यत्रोद्वमति रतिसंतापतरला । कटाक्षान् धूमौघान् कुवलयदलश्यामलरूचीन् ॥ अथांगान्यंगाराः कृतबहुविकाराश्च विषया । दहन्त्यस्मिन् वह्नौ भववपुषि शर्म क्व सुलभम् ॥३॥
भावार्थ : इस संसाररूपी अग्नि में रति (काम) रूपी संताप से चंचल बनी हुई प्रिया रूपी ज्वाला है । जो कमल के पत्र-सी श्यामकान्ति वाले स्त्री - कटाक्षरूपी धूम्रसमूह को बाहर फेंक रही है। स्त्री के अंग अंगारे हैं, जिनसे विषय-विकाररूपी लपटें निकलती हैं । ऐसी धधकती हुई संसाररूपी अग्नि में सुख कहाँ से सुलभ हो ? || ३ ||
गले दत्त्वा पाशं तनयवनितास्नेहघटितं । निपीड्यते यत्र प्रकृतिकृपणाः प्राणिपशवः ॥ नितान्तं दुःखार्त्ता विषमविषयैर्घातकभटै - । र्भवः सूनास्थानं तदहह महासाध्वसकरम् ॥४॥ भावार्थ : अहो ! यह संसार एक महाभयानक कसाईखाना है, जहाँ विषमविषयरूपी घातक शूर (कसाई) प्रकृति से तुच्छ
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अध्यात्मसार