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अत्यन्त भिन्न माना है। इसलिए परमार्थतः (वस्तुतः) यहाँ भी हिंसा की व्यवस्था नहीं हो सकती ॥२६॥ न च हिंसापदं नाशपर्यायं कथमप्यहो ! जीवस्यैकान्तनित्यत्वेऽनुभवाबाधकं भवेत् ॥२७॥
भावार्थ : अहो ! जीव को एकान्त नित्य मानने से नाश का पर्यायरूप हिंसा शब्द किसी प्रकार से भी अनुभव का अबाधक नहीं होगा । मतलब यह है कि वह अनुभव का बाधक ही होगा ॥२७॥ शरीरेणाऽपि सम्बन्धो नित्यत्वेऽस्य न संभवी । विभुत्वे न च संसारः कल्पितः स्यादसंशयम् ॥२८॥
भावार्थ : जीवात्मा को यदि नित्य मानें तो उसका शरीरादि के साथ सम्बन्ध संभव नहीं है । इसे विभुसर्वव्यापक मानें तो निःसंदेह यह संसार कल्पित नहीं हो सकेगा ॥२८॥ अदृष्टाद्देहसंयोगः स्यादन्यतरकर्मजः। इत्थं जन्मोपपत्तिश्चेन्न तद्योगाविवेचनात् ॥२९॥
भावार्थ : अदृष्ट से किसी भी कर्म से उत्पन्न देह का संयोग हो सकता है, (इसलिए आत्मक्रिया की कोई अपेक्षा नहीं रहती) इस पर जैन सिद्धान्ती उत्तर देते हैं कि यदि इस प्रकार जन्म की संगति बिठाना चाहोगे तो वह संभव नहीं हो
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अध्यात्मसार