________________
वगैरह भवों में बड़ी हिंसा प्राप्त होती है, अर्थात् वे जीवहिंसा करने वाले बनते हैं ॥५०॥
साधूनामप्रमत्तानां सा चाहिँसानुबन्धिनी । हिंसानुबन्धविच्छेदाद् गुणोत्कर्षो यतस्ततः ॥५१॥
I
भावार्थ : अप्रमत्त साधुओं से होने वाली हिंसा भी अहिंसानुबन्धी होती है । क्योंकि हिंसा के अनुबन्ध का विच्छेद होने से इसके विपरीत जहाँ-तहाँ से उसके गुणों की वृद्धि होती जाती है ॥५१॥ मुग्धानामियमज्ञानात् सानुबन्धा न कर्हिचित् । ज्ञानोद्रेकाप्रमादाभ्यामस्या यदनुबन्धनम् ॥५२॥
भावार्थ : अज्ञानता के कारण भोले-भाले मूढ़ लोगों के लिए वह अहिंसा अनुबन्ध वाली नहीं होती । क्योंकि अहिंसा का अनुबन्ध प्रायः ज्ञान और अप्रमाद से ही होता है ॥५२॥ एकस्यामपि हिंसायामुक्तं सुमहदन्तरम् । भाववीर्यादि-वैचित्र्यादहिंसायां च तत्तथा ॥ ५३ ॥
भावार्थ : एक ही प्रकार की हिंसा में भी भाव और वीर्य की विचित्रता के कारण बहुत बड़ा अन्तर बताया है, इसी प्रकार अहिंसा में भी अन्तर समझना चाहिए ॥५३॥ सद्यः कालान्तरे चैतद्विपाकेनापि भिन्नता । प्रतिपक्षान्तरालेन तथा शक्तिनियोगतः ॥५४॥
अधिकार बारहवाँ
१३१