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हिंसाया ज्ञानयोगेन सम्यग्दृष्टेर्महात्मनः । तप्तलोहपदन्यासतुल्याया नानुबन्धनम् ॥४७॥
भावार्थ : सम्यग्दृष्टिसम्पन्न महात्मा को ज्ञान का योग होने से तपे हुए लोहे पर पैर रखने जैसी हिंसा का अनुबन्ध (सम्बन्ध) नहीं लगता ॥४७॥
सतामस्याश्च कस्याश्चिद् यतनाभक्तिशालिनाम् । अनुबन्धो ह्यहिंसाया जिनपूजादिकर्मणि ॥ ४८ ॥
भावार्थ : यतना और भक्ति से सुशोभित सत्पुरुषों (सम्यग्दृष्टि मानवों) को जिनपूजादि क्रियाओं में कभी कुछ हिंसा होती भी है, तो भी उसे अनुबन्ध अहिंसा का ही होता है ॥४८॥ हिंसानुबन्धिनी हिंसा मिथ्यादृष्टेस्तु दुर्मतेः । अज्ञानशक्तियोगेन तस्याहिंसाऽपि तादृशी ॥ ४९ ॥
भावार्थ : दुष्टबुद्धि वाले मिथ्यादृष्टि की गृहारम्भादिजनित हिंसा हिंसानुबन्धी होती है, तथा उसकी अहिंसा भी अज्ञानशक्ति के सम्बन्ध के कारण हिंसा जैसी ही होती है ॥४९॥ येन स्यान्निह्नवादीनां दिविषदुर्गतिः क्रमात् । हिंसैव महती तिर्यग्नरकादिभवान्तरे ॥५०॥
भावार्थ : यही कारण है कि निह्नवादि की देवलोक में भी दुर्गति होती है । उसके बाद भवान्तर में तिर्यंच, नरक
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अध्यात्मसार