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हिंस्यकर्मविपाकेयं दुष्टाशयनिमित्तता । हिंसकत्वं न तेनेदं वैद्यस्य स्याद्रिपोरिव ॥४३॥
भावार्थ : दुष्ट अध्यवसाय के निमित्त से होने वाली यह हिंसा हिंस्य जीव के कर्मविपाकरूप है, इस कारण शत्रु की तरह वैद्य को यह हिंसकपन प्राप्त नहीं होता ॥ ४३ ॥
इत्थं सदुपदेशादेस्तन्निवृत्तिरपि स्फुटा । सोपक्रमस्य पापस्य नाशात् स्वाशयवृद्धितः ॥४४॥
भावार्थ : इस प्रकार सदुपदेश आदि से, सोपक्रमी पाप के नष्ट होने से और उससे अपने शुभ अध्यवसाय की वृद्धि होने से उस हिंसा से निवृत्ति भी साफ तौर से हो जाती है ॥ ४४ ॥ अपवर्गतरोर्बीजं मुख्याऽहिंसेयमुच्यते । । सत्यादीनि व्रतान्यत्र जायन्ते पल्लवा नवाः ॥४५ ॥
भावार्थ : अहिंसा मोक्षरूपी वृक्ष का बीज है, इसलिए इसे मुख्य (धर्म) कहा गया है । तथा सत्य आदि व्रत इसी अहिंसावृक्ष के नये-नये अंकुररूप में उत्पन्न होते हैं ॥ ४५ ॥ अहिंसा सम्भवश्चेत्थं दृश्यतेऽत्रैव शासने । अनुबन्धादिसंशुद्धिरप्यत्रैवास्ति वास्तव ॥ ४६ ॥
भावार्थ : इस प्रकार अहिंसा का संभव इस जिनशासन में ही दिखाई देता है तथा अनुबन्ध वगैरह की शुद्धि भी वास्तविक रूप से जिनशासन में ही है ॥४६॥
अधिकार बारहवाँ
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