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का हनन करता है और स्वयं दूसरों से हनन भी किया जाता है और उस-उस फल को भी प्राप्त करता (भोगता) है ॥३९॥ इह चानुभवः साक्षी व्यावृत्त्यन्वयगोचरः। एकान्तपक्षपातिन्यो युक्तयस्तु मिथो हताः ॥४०॥
भावार्थ : इस विषय में अन्वय और व्यतिरेक के विषयवाला अनुभव ही साक्षी है और एकान्तवाद की पक्षपातिनी युक्तियाँ तो परस्पर कट जाती हैं ॥४०॥ पीड़ाकर्तृत्त्वतो देहव्यापत्त्या दुष्टभावतः । त्रिघा हिंसागमे प्रोक्ता नहीथमपहेतुका ॥४१॥
भावार्थ : दूसरों को पीड़ा देने से, स्वयं देह को नष्ट करने से और दुष्ट परिणाम से; यों तीन प्रकार की हिंसा जिनागम में कही गई है । इस प्रकार मानने से वह हिंसा अहेतुक या कोरी काल्पनिक नहीं है, अपितु सहेतुक है ॥४१॥ हन्तुर्जाग्रति को दोषो हिंसनीयस्य कर्मणि । प्रसक्तिस्तदभावे चान्यत्रापि मुधा वचः ॥४२॥
भावार्थ : हिंस्य जीव का कर्म उदय में आने से उसका वध होता है, उसमें हिंसक का क्या दोष ? और उस हिंसक के अभाव में दूसरे किसी हिंसक की हिंसा करनी ही पड़ती, इस प्रकार यदि कोई कहता है तो व्यर्थ का बकवास है ॥४२॥ १२८
अध्यात्मसार