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अनित्यैकान्तपक्षेऽपि हिंसादीनामसम्भवः । नाशहेतोरयोगेन क्षणिकत्वस्य साधनात् ॥३३॥
भावार्थ : एकान्त अनित्यपक्ष में भी हिंसा आदि की सम्भावना नहीं है। क्योंकि क्षणिकता को सिद्ध करने से नाश के कारण का अयोग है, अर्थात् नाश का कारण नहीं रहता ॥३३॥ न च सन्तानभेदस्य जनको हिंसको भवेत् । सांवृतत्वादजन्यत्वाद् भावत्वनियतं हि यत् ॥३४॥
भावार्थ : सन्तानपरम्परा का भेद (नाश) करने वाला हिंसक होगा, यह कहना भी यथार्थ नहीं है, क्योंकि वह हिंसक तो सिर्फ विद्यमानता में ही रहता है, तथा अजन्य यानी सन्तान का जनक-उत्पादक नहीं है तथा वह सन्तान सिर्फ उत्पत्ति में ही निश्चित है । इसलिए उसे हिंसा कहना अययार्थ है, वह हिंसा ही नहीं है ॥३४॥ नरादिक्षणहेतुश्च शूकरादेर्न हिंसकः । शूकरान्त्यक्षणेनैव व्यभिचारप्रसंगतः ॥३५॥
भावार्थ : मनुष्य आदि (हिंसक) तो एक क्षणमात्र का हेतु है, सूअर आदि (हिंस्य) का हिंसक वह रहता नहीं है । क्योंकि सूअर के अन्तिम क्षण तक वह मनुष्य रहता ही नहीं है। इसलिए सूअर मारने वाला कौन है? यदि कहो कि मनुष्य है तो सूअर से अन्तिम क्षण के साथ व्यभिचारदोष का प्रसंग आता है ॥३५॥ १२६
अध्यात्मसार