________________
I
हिंसनीय का संयोग होने से हुई हिंसा की उत्पत्ति से उसकी सिद्धि होती है । और उसकी सिद्धि होने से सद्भूत हिंसा सिद्ध होती है, परमार्थहिंसा मनोयोग का नाश होने से सिद्ध नहीं होती, क्योंकि मन जड़ है, वह आत्मा से भिन्न भी है । अत: मन का नाश होने से आत्मा का क्या बिगड़ता है? कुछ भी नहीं । जड़वस्तु की हिंसा होती ही नहीं और जड़वस्तु की कोई हिंसा कहलाती नहीं । क्योंकि उसे शस्त्रादि के प्रहार से कुछ भी नहीं होता । तथा मनोयोग हिंस्य और हिंसक कैसे हो सकता है? उसके निमित्त से मन को पापकर्मों का बन्ध, होता है, ऐसा कहा नहीं जा सकता, क्योंकि मन जड़ है । यदि जड़ वस्तु को भी हिंस्य - हिंसक कहा जाय तो फिर किसी को भी मोक्ष नहीं हो सकेगा । अचित्त अन्न-वस्त्रादि जड़ पदार्थों से भी मन के नाश की तरह हिंसाकारित्त्व प्राप्त होने से मोक्ष होगा ही नहीं । तथा मनरहित जो एकेन्द्रिय जीव हैं, उनका मरण ही नहीं होगा, क्योंकि मनोयोग के नाश का अभाव है । यदि मन को हिंसक कहेंगे तो सारे जगत् का जीना ही कठिन हो जाएगा; क्योंकि सबका मन जड़ है ||२५|| ॥२५॥
नैति बुद्धिगताः दुःखोत्पादरूपेयमौचितीम् । पुंसि भेदाग्रहात्तस्याः परमार्थाव्यवस्थितेः ॥ २६ ॥
भावार्थ : दुःख को उत्पन्न करने वाली बुद्धि में स्थित यह हिंसा भी उचित नहीं, क्योंकि बुद्धि को पुरुष (आत्मा) से
अधिकार बारहवाँ
१२३