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संभिन्नालाप (परमर्मभेदी असम्बद्ध प्रलाप ), व्यापाद (द्रोह का चिन्तन), अभिध्या (परधन हरण करने की इच्छा), और दृग्विपर्यय (कुशलधर्म से विपरीतदृष्टि); इस प्रकार दश प्रकार के पापकर्मों (पापबन्धकर्ता कर्मों) का मन, वचन और काया से त्याग करना चाहिए ॥१८-१९॥
ब्रह्मादिपदवाच्यानि तान्याहुर्वैदिकादयः । अतः सर्वैकवाक्यत्वाद्धर्मशास्त्रमदोऽर्थकम् ॥२०॥
भावार्थ : वैदिक आदि मत वाले अहिंसा आदि को ब्रह्म आदि पद से वाच्य करते हैं (पुकारते हैं), उन सबका एक ही वाच्यार्थ होने से यह धर्मशास्त्र सार्थक है ॥२०॥
क्व चैतत्सम्भवो युक्त इति चिन्त्यं महात्मना । शास्त्रं परीक्षमाणेनाव्याकुलेनाऽन्तरात्मना ॥ २१॥
भावार्थ : यह अहिंसादि धर्म का संभव (उत्पत्ति) किस शास्त्र में कहा हुआ युक्त (उचित) है? इसके लिए परीक्षा करने वाले महात्मा को अव्यग्रचित्त से शास्त्र पर चिन्तन (विचार) करना चाहिए ॥ २१ ॥
प्रमाणलक्षणादेस्तु नोपयोगोऽत्र कश्चन । तन्निश्चयेऽनवस्थानादन्यथार्थस्थितेर्यतः ॥२२॥
भावार्थ : इस प्रकार की शास्त्रपरीक्षा में प्रमाण एवं लक्षण आदि कोई भी उपयोग नहीं होता; क्योंकि जीवादि
अधिकार बारहवाँ
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