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पदार्थों की उससे अन्यथा स्थिति होने के कारण उसका निश्चय करने में अनवस्थादोष उत्पन्न होने की सम्भावना है ॥२२॥ प्रसिद्धानि प्रमाणानि, व्यवहारश्च तत्कृतः। प्रमाणलक्षणस्योक्तौ ज्ञायते न प्रयोजनम् ॥२३॥
भावार्थ : समस्त प्रमाण प्रसिद्ध हैं। उनके द्वारा किया जाने वाला व्यवहार भी प्रसिद्ध है। इसलिए प्रमाण को लक्षण बताना यहाँ निष्प्रयोजन है ॥२३॥ तत्राऽत्मा नित्य एवेति येषामेकान्तदर्शनम् । हिंसादयः कथं तेषां कथमप्यात्मनोऽव्ययात् ॥२४॥
भावार्थ : 'आत्मा नित्य ही है' ऐसा जिनका एकान्त मत है, उनकी दृष्टि से आत्मा का कभी नाश (घात) न होने के कारण हिंसादि किस प्रकार घटित हो सकते हैं ? नहीं हो सकते ! ॥२४॥ मनोयोगविशेषस्य ध्वंसो मरणमात्मनः । हिंसा तच्छेन्न तत्त्वस्य सिद्धेरार्थसमाजतः ॥२५॥
भावार्थ : मन तथा उसके व्यापार का विनाश ही आत्मा की मृत्यु है । इसलिए वही हिंसा है । परन्तु इसके उत्तर में सिद्धान्तवादी (जैन) कहते हैं, यदि इसे ही हिंसा कही जाए तो यह कथन भी अयथार्थ है, सिद्ध नहीं होता, आपके कथन से भी । क्योंकि इस प्रकार तो आर्थ (सद्भूत परमार्थ) के हिंसाभावस्वरूप तत्त्व की सिद्धि होती है । हिंसक और १२२
अध्यात्मसार