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भावार्थ : कुशास्त्रों के अर्थ करने में कुशलता, शास्त्रों के अर्थ करने में विपरीतता, स्वच्छन्दता, कुतर्कप्रियता, गुणीजनों के सत्संग का त्याग, ॥१२॥ अपने उत्कर्ष (बड़प्पन) की डींग हांकना, दूसरों से द्रोह रखना, झगड़ा करना, दम्भयुक्त जीवन, पापों को ढंकना, शक्ति से अधिक क्रिया का आदर करना ॥१३॥ गुणानुराग से रहित, परोपकार को भूल जाना, पुण्यानुबन्धक या पापानुबन्धक कर्म का विचार न करना, वैराग्यादि धर्मकार्यों में उपयोगपूर्वक चित्त की एकाग्रता (प्रणिधान) न रखना ||१४|| श्रद्धा के विषय में शिथिलता, उद्धत्तता, अधीरता और अविवेक, यह मोहगर्भित द्वितीय वैराग्य की लक्षणावली (लक्षणों की सूची ) बताई गई है ॥१५॥ ज्ञानगर्भ तु वैराग्यं समयक्तत्त्वपरिच्छिदः । स्याद्वादिनः शिवोपायस्पर्शिनस्तत्त्वदर्शनः ॥१६॥
भावार्थ : सम्यक्त्व तत्त्वों के जानकार, स्याद्वाद ( अनेकान्तवाद) से वस्तुतत्त्व का निर्णय करने वाले, मोक्ष के उपायों का स्पर्श करने ( आचरण में लाने ) वाले एवं तत्त्वदर्शी आत्मा का वैराग्य ज्ञानगर्भित होता है ॥ १६ ॥
मीमांसा मांसला यस्य स्वपरागमगोचरा । बुद्धिः स्यात्तस्य वैराग्यं, ज्ञानगर्भमुदञ्चति ॥१७॥
भावार्थ : जिस साधक की मीमांसा (तत्त्व - विचारणा) विशाल हो, जिसकी बुद्धि स्वपर (जैनसिद्धान्तों और
अधिकार छठा
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