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भावार्थ : समता नरक में प्रवेश करते हुए जीव को रोकने दरवाजे की अर्गला के समान है, वह मोक्षमार्ग में प्रकाश करने वाली दीपिका है, गुणरत्नों का संग्रह करने में रोहणाचल पर्वत के समान है । अतः समता साधक के लिए अनिष्टनिरोधक एवं इष्ट-सम्पादक है ॥१७॥ मोहाच्छादितनेत्राणामात्मरूपमपश्यताम् । दिव्याञ्चनशलाकेव समता दोषनाशकृत् ॥१८॥
भावार्थ : जिनकी आँखें मोह से आच्छादित हैं, अतएव जो आत्मा के स्वरूप को देख नहीं सकते, उनके लिए समता दिव्य अंजनशलाका (सलाई) की तरह है, जो नेत्ररोगनाशक की तरह अज्ञानादि दोषों का नाश करने वाली है। दिव्यचक्षु के रोगों (अज्ञानादि) का नाश होने पर आत्मस्वरूप स्पष्ट जाना जा सकता है ॥१८॥ क्षणं चेतः समाकृष्य समता यदि सेव्यते । स्यात्तदा सुखमन्यस्य यद्वक्तुं नैव पार्यते ॥१९॥
भावार्थ : जीव एक क्षण के लिए भी समस्त विषयों से चित्त को खींचकर (समेटकर) यदि समता का सेवन करे तो उसे जो सुख मिले, उसका दूसरों के सामने वर्णन करना भी सम्भव नहीं है। यानी वह अपूर्व आनन्द अनिर्वचनीय होता है। समता के आनन्द का अनुभव समतावान् ही कर सकता है ॥१९॥
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अध्यात्मसार