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___ भावार्थ : भलीभांति शास्त्रों के अर्थ का चिन्तन, क्रिया के विषय में मन की एकाग्रता तथा कालादि अंगों का अविपर्यास, ये अमृतानुष्ठान के लक्षण हैं ॥२७॥ द्वयं हि सदनुष्ठानं त्रयमत्रासदेव च । तत्रापि चरमं श्रेष्ठं मोहोगविषनाशनात् ॥२८॥
भावार्थ : इन पाँच प्रकार के अनुष्ठानों में अन्तिम दो अनुष्ठान सत् हैं और पहले के तीन असत् हैं । उन अन्तिम दो अनुष्ठानों में भी अन्तिम अनुष्ठान मोहरूपी उग्र विष का नाशक होने से श्रेष्ठ है ॥२८॥ आदरः करणे प्रीतिरविघ्नः सम्पदागमः । जिज्ञासा तज्ज्ञसेवा च सदनुष्ठानलक्षणम् ॥२९॥
भावार्थ : आदर, क्रिया करने में प्रीति, अविघ्न, ज्ञानादि सम्पत्ति की प्राप्ति, जिज्ञासा और उसके विज्ञों की सेवा, ये सद्नुष्ठान के लक्षण हैं ॥२९॥ भेदैभिन्नं भवेदिच्छा-प्रवृत्तिस्थिरसिद्धिभिः । चतुर्विधमिदं मोक्षयोजनाद् योगसंज्ञितम् ॥३०॥
भावार्थ : इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता और सिद्धि इस प्रकार चार भेदों से युक्त तथा जीव को मोक्ष के साथ योजन करनेजोड़ने वाला होने से यह चतुर्विध योगसंज्ञक अनुष्ठान है ॥३०॥ १०४
अध्यात्मसार