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वस्तु के प्राप्त होते ही पुनः प्रसन्नमुख हो जाता है, तो उसमें दूसरे को कारण कैसे कहा जा सकता है?
चरणयोगघटान् प्रविलोठयन् शमरसं सकलं विकिरत्यधः । चपल एष मनः कपिरुच्चकैः रसवणिग्विदधातु मुनिस्तु किम् ? |४| भावार्थ : यह अत्यन्त चपल मन - रूपी बंदर चारित्र के योगरूपी घड़ों को उलटाकर सारा का सारा शमत्वरस नीचे गिरा देता है, ऐसी दशा में मुनिरूपी रस - व्यापारी क्या करे ? ॥४॥ सतत कुट्टितसंयमभूतलोत्थितरजोनिकरैः प्रथयंस्तमः । अतिदृढैश्च मनस्तुरगो गुणैरपि नियंत्रित एष न तिष्ठति ॥५॥
भावार्थ : निरन्तर अपने पैरों से खुदे हुए समयरूपी भूतल को उखाड़ने से उड़ी हुई धूलि के पुंज से अन्धेरा - सा फैलाता हुआ मनरूपी घोड़ा अत्यन्त मजबूत रस्सों से जकड़ने पर भी स्थिर नहीं रहता ॥५॥ जिनवचोघनसारमलिम्लुचः कुसुमसायक- पावकदीपकः । अहह कोऽपि मनःपवनो बली शुभमतिद्रुमसंततिभंगकृत् ॥६॥
भावार्थ : अहा ! यह मनरूपी पवन अत्यन्त बलवान है, क्योंकि वह जिनवचनरूपी कपूर को उड़ा ले जाता है, कामरूपी अग्नि को प्रज्वलित कर देता है, शुभमतिरूपी वृक्षावली को नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है
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॥६॥
अधिकार ग्यारहवां
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