________________
अथवेदं यथातत्त्वमाज्ञयैव तथाऽखिलम् । नवानामपि तत्त्वानामिति श्रद्धोदितार्थतः ॥८॥
भावार्थ : अथवा जैसे यह अहिंसारूप तत्त्व आज्ञारूप कहा है, इसी प्रकार जीवादि नौ तत्त्वों पर भी श्रद्धा करने, आज्ञा आदि रुचियों द्वारा जानने को भी सम्यक्त्व कहा है ॥८॥ इहैव प्रोच्यते शुद्धाऽहिंसा वा तत्त्वमित्यतः । सम्यक्त्वं दर्शितं सूत्रप्रामाण्योपगमात्मकम् ॥९॥
भावार्थ : शुद्ध अहिंसा अथवा शुद्धतत्त्व जिनप्रणीत आगमों में ही कहा गया है, इस प्रकार सूत्र के प्रमाणत्व के स्वीकार करने को भी सम्यक्त्व कहा है ॥९॥ शुद्धाहिंसोक्तितः सूत्रप्रामाण्यं तत एव च । अहिंसाशुद्धधीरेवमन्योन्याश्रयभीर्ननु ॥१०॥
भावार्थ : (सूत्र में) शुद्ध अहिंसा की उक्ति होने से सूत्र की प्रमाणता सिद्ध होती है, और उसी को लेकर प्राणी अहिंसा के प्रति शुद्ध बुद्धि वाला होता है; इस प्रकार अन्योन्याश्रयदोष का खतरा नहीं रहता ॥१०॥ नैवं यस्मादहिंसायां सर्वेषामेकवाक्यता । तत्छुद्धतावबोधश्च संभवादिविचारणात् ॥११॥
भावार्थ : चूकि संभव (हिंसा की उत्पत्ति, हिंसक, हिंस्य) आदि का विचार करने पर अहिंसा के सम्बन्ध में सभी ११८
अध्यात्मसार