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कुर्वन्निवृत्तिमप्येवं कामभोगास्त्यजन्नपि ।
दुःखस्योरो ददानोऽपि मिथ्यादृष्टिर्न सिध्यति ॥४॥
भावार्थ : इसी प्रकार निवृत्ति (संतोष) करता हुआ, कामभोगों का त्याग करता हुआ और दुःख में भी हृदय स्थान देता हुआ, मिथ्यादृष्टि सिद्ध (मुक्त) नहीं होता ||४|| कनीनिकेव नेत्रस्य कुसुमस्येव सौरभम् । सम्यक्त्वमुच्यते सारं सर्वेषां धर्मकर्मणाम् ॥५॥
भावार्थ : आँखों में पुतली की तरह एवं पुष्प में सुगन्ध की तरह सभी धर्मकार्यों का सार सम्यक्त्व है ॥५॥ तत्त्वश्रद्धानमेतच्च गदितं जिनशासने । सर्वे जीवा न हन्तव्याः, सूत्रे तत्त्वमीतिष्यते ॥६॥
भावार्थ : जिनशासन में इस सम्यक्त्व को तत्त्वश्रद्धानरूप कहा है और 'समस्त जीवों को नहीं मारना चाहिए' इसे तत्त्व के रूप में शास्त्र में प्रतिपादित किया है ॥६॥
शुद्ध धर्मोऽयमित्येतदधर्म रुच्यात्मकं स्थितम् । शुद्धानामिदमन्यासां रुचीनामुपलक्षणम् ॥७॥
भावार्थ : यह (अहिंसारूप) धर्म शुद्ध ( निर्दोष) है और यही ( श्रद्धान) धर्मरुचिरूप श्रद्धान अन्य शुद्ध रुचियों का उपलक्षण है ||७|| 11911
अधिकार बारहवाँ
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