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अधिकार बारहवाँ
[ सम्यक्त्व ]
मनः शुद्धिश्च सम्यक्त्वे सत्येव परमार्थतः । तद्विना मोहगर्भा सा प्रत्यपायानुबन्धिनी ॥ १ ॥
भावार्थ : सम्यक्त्व के होने पर ही परमार्थत: (वस्तुत: ) मन की शुद्धि होती है । सम्यक्त्व के बिना हुई मन:शुद्धि मोहगर्भित तथा प्रत्यपाय से सम्बन्धित होती है ॥१॥
सम्यक्त्वसहिता एव शुद्धा दानादिकाः क्रियाः । तासां मोक्षफले प्रोक्ता यदस्य सहकारिता ॥२॥
भावार्थ : दान आदि समस्त क्रियाएँ सम्यक्त्वसहित हों, तभी वे शुद्ध हो सकती हैं, क्योंकि उन क्रियाओं के मोक्षरूपी फल में यह सम्यक्त्व सहयोगी - सहकारी हैं ॥२॥ कुर्वाणोऽपि क्रियां ज्ञाति-धन- भोगांस्त्यजन्नपि । दुःखस्योरो ददानोऽपि नान्धो जयति वैरिणः ॥३॥
भावार्थ : अन्घा मनुष्य चाहे जितनी क्रियाएँ (शारीरिक चेष्टाएँ) कर ले, वह अपनी जाति, धन और भोगों का भी त्याग कर दे, तथा कष्टों को अपने हृदय में स्थान दे दे (यानी कितने ही दुःख सह ले ) तो भी वह शत्रु को जीत नहीं सकता ॥३॥
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अध्यात्मसार