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हो गया है, इस प्रकार की कोई अपूर्व (अद्भुत) निश्चयनय की कल्पना संपूर्णरूप से निवृत्ति की समाधि के लिए होती है ॥ १८ ॥ इह हि सर्वबहिर्विषयच्युतं हृदयमात्मनि केवलमागतम् । चरणदर्शनबोध - परम्परापरिचितं प्रसरत्यविकल्पकम् ॥१९॥
भावार्थ : इस निर्विकल्पक दशा में मन समस्त बाह्यविषयों से रहित, केवल आत्मा के विषय में ही लीन, ज्ञान - दर्शन - चारित्र की परम्परा से अभ्यस्त तथा विकल्पों के प्रसार से रहित हो जाता है ॥ १९ ॥
तदिदमन्यदुपैत्यधुनाऽपि नो, नियतवस्तुविलास्यपि निश्चयात्। क्षणमसंगमुदीतनिसर्गधीहतबहिर्ग्रहमन्तरुदाहृतम् ॥२०॥
भावार्थ : इस प्रकार अब भी योगी का मन नियतवस्तु (चैतन्य) के विषय में विलासी होने पर भी निश्चयस्वभाव के कारण अन्य कुछ भी ग्रहण नहीं करता, क्योंकि ऐसी निश्चयनय की अवस्था में चित्त में क्षणभर भी असंग तथा उदितनिसर्गबुद्धि द्वारा बहिर्मुखी ज्ञान नष्ट हो जाता है ॥२०॥ कृतकषायजय: गभीरिम प्रकृतिशान्तमुदात्त उदारधीः । स्वमनुगृह्य मनोऽनुभवत्यहो गलितमोहतमः परमं महः ॥ २१ ॥
भावार्थ : क्रोधादि कषायों पर विजय पाने वाला उदारबुद्धि साधक अपने चित्त को अनुकूल बनाकर गंभीरतायुक्त, प्रकति से शान्त, उदात्त, मोहान्धकार के नाश से
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अध्यात्मसार