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अनिगृहीतमना कुविकल्पतो नरकमृच्छति तन्दुलमत्स्यवत् । इयमभक्षणजा तदजीर्णतानुपनतार्थविकल्पकदर्थना ॥१०॥
भावार्थ : मन का निग्रह न करने वाला मनुष्य खराब विकल्पों के कारण तन्दुलमत्स्य की तरह नरक में जाता है। वह नरकगमनरूपी विडम्बना अप्राप्त पदार्थो के विकल्पों के द्वारा दी गई है, जो भोजन किये बिना ही उत्पन्न हुए अजीर्ण (अपच) की तरह है ॥१०॥ मनसि लोलतरे विपरीततां, वचननेत्रकरेङ्गितगोपना । व्रजति धूर्ततया ह्यनयाऽखिलं निबिड़दम्भपरैर्मुषितं जगत् ॥११॥
भावार्थ : यदि मन अत्यन्त चंचल होता है, तो वचन, नेत्र, हाथ और शरीर की चेष्टाओं का जो गोपन (छिपाव) करना पड़ता है, वह गुप्ति विपरीतता को ही लाती है। अत्यन्त गूढ दाम्भिक पुरुषों ने इसी प्रकार की धूर्तता करके सारे जगत् को ठगा है ॥११॥ मनस एव ततः परिशोधनं नियमतो विदधीत महामतिः । इदमभेषजसंवननं मुनेः परपुमर्थरतस्य शिवश्रियः ॥१२॥
भावार्थ : इसलिए बुद्धिमान पुरुष को अवश्यमेव मन की परिशुद्धि करनी चाहिए, क्योंकि मन की शुद्धि परमपुरुषार्थ (मोक्ष) में रत मुनि के लिए मुक्तिलक्ष्मी को वश में करने के हेतु औषधरहित वशीकरण है ॥१२॥ अधिकार ग्यारहवां
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