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इच्छा तद्वात्कथा प्रीतियुक्ताऽविपरिणामिनी । प्रवृत्तिः पालनं सम्यक् सर्वत्रोपशमान्वितम् ॥३१॥
भावार्थ : योगस्वरूप के दर्शन वाली कथा, विपरिणामरहित और प्रीतियुक्त हो, वह इच्छायोग कहलाता है, तथा सर्वत्र उपशम के युक्त, व्रतादि का सम्यक् पालन करना, प्रवृत्तियोग कहलाता है ॥३१॥ सत्क्षयोपशमोत्कर्षादतिचारादिचिन्तया । रहितं तु स्थिरं सिद्धिः परेषामर्थसाधकम् ॥३२॥
भावार्थ : सत्क्षयोपशम के उत्कर्ष से अतिचारादि की चिन्तारहित योग स्थिरयोग कहलाता है और दूसरों के अर्थ का साधक सिद्धयोग कहलाता है ॥३२॥ । भेदा इमे विचित्राः स्युः क्षयोपशमभेदतः । श्रद्धाप्रीत्यादियोगेन भव्यानां मार्गगामिनाम् ॥३३॥
भावार्थ : ये भेद श्रद्धा, प्रीति वगैरह के योग से मार्गानुसारी भव्यजीवों के क्षयोपशम के भेद से विभिन्न प्रकार के होते हैं ॥३३॥ अनुकम्पा च निर्वेदः संवेगः प्रशमस्तथा । एतेषामनुभावाः स्युरिच्छादीनां यथाक्रमम् ॥३४॥
भावार्थ : इन इच्छादि योगों के क्रमशः अनुकम्पा, निर्वेद, संवेग और प्रशम ये चार-चार प्रभाव होते हैं ॥३४॥ अधिकार दसवाँ
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