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भावार्थ : उन अनुष्ठानों में विचित्र प्रकार की प्रवृत्ति को ही पत्रादिसदृशी मानी गई है तथा गुरुसमागम आदि कारणों से समृद्धि प्राप्त करने को पुष्परूप कहा है ॥२३॥ भावधर्मस्य सम्पत्तिर्या सद्देशनादिना । फलं तदत्र विज्ञेयं नियमान्मोक्षसाधकम् ॥२४॥
भावार्थ : तथा सद्देशना आदि के रूप में जो भावधर्म की प्राप्ति होती है, उसी को यहाँ निश्चय से मोक्षसाधक फल समझना चाहिए ॥ २४॥
सहजो भावधर्मो हि सुगन्धश्चन्दनगन्धवत् । एतद्गर्भमनुष्ठानममृतं सम्प्रचक्षते ॥ २५ ॥
भावार्थ : चन्दन की सुगन्ध की तरह जो सहज और शुद्ध भावधर्म है, उस भाव धर्म से मिश्रित (तद्गर्भित) अनुष्ठान ही अमृतानुष्ठान कहलाता है ||२५|| ॥२५॥ जैनीमाज्ञां पुरस्कृत्य प्रवृत्तं चित्तशुद्धितः । संवेगगर्भमत्यन्तममृतं तद्विदो विदुः ॥ २६ ॥
भावार्थ : जिनेश्वर की आज्ञा को समक्ष रखकर चित्तशुद्धिपूर्वक जो कार्य अत्यन्त संवेग के साथ प्रवृत्त होता हो, उसे ज्ञानी पुरुष (तीर्थंकर आदि) अमृतानुष्ठान कहते हैं ॥ २६ ॥ शास्त्रार्थालोचनं सम्यक् प्रणिधानं च कर्मणि । कालाद्यंगाविपर्यासोऽमृतानुष्ठानलक्षणम् ॥२७॥
अधिकार दसवाँ
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