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सम्बन्ध में यौवनप्राप्त पुरुष को धर्म के प्रति अनुराग के कारण असत्क्रिया लज्जाजनक लगती है ॥१९॥ चतुर्थं चरमावर्ते तस्माद् धर्मानुरागतः । अनुष्ठानं विनिर्दिष्टं बीजादिक्रमसंगतम् ॥२०॥
भावार्थ : इसलिए चरमावर्तकाल में धर्म के प्रति अनुराग के कारण बीज आदि के क्रम से युक्त चौथा (तद्धेतु) अनुष्ठान बताया है ॥२०॥ बीजं चेह जनान् दृष्टवा शुद्धनुष्ठानकारिणः । बहुमान-प्रशंसाभ्यां चिकीर्षा शुद्धगोचरा ॥२१॥
भावार्थ : जिनशासन के सन्दर्भ में शुद्ध अनुष्ठानकर्ता मनुष्यों को देखकर उनके बहुमान, प्रशंसा एवं सत्कार द्वारा शुद्ध विषय वाली क्रिया करने की इच्छा ही यहाँ बीज है ॥२१॥ तस्या एवानुबन्धश्चाकलंकः कीर्त्यतेऽङ्कुरः । तद्धत्वन्वेषणा चित्रा स्कन्धकल्पा च वर्णिता ॥२२॥
भावार्थ : उस शुद्ध अनुष्ठान को करने की इच्छा के निष्कलंक अनुबन्ध को ही अंकुर कहते हैं । और उसके हेतु की विविध प्रकार की गवेषणा को स्कन्धरूप बताया है ॥२२॥ प्रवृत्तिस्तेषु चित्रा च पत्रादिसदृशी मता। पुष्पं च गुरुयोगादिहेतुसम्पत्तिलक्षणम् ॥२३॥ १०२
अध्यात्मसार