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तो फिर मिथ्यादृष्टियों द्वारा किया हुआ धर्म कदापि त्याज्य नहीं होगा, वह शाश्वत रहेगा ॥१४॥ तस्माद् गत्यानुगत्या यत् क्रियते सूत्रवर्जितम् । ओघतो लोकतो वा तदननुष्ठानमेवहि ॥१५॥
भावार्थ : इसलिए गतानुगतिकता से यानी सूत्रोक्त, आचाररहित ओघलोकसंज्ञा से-देखादेखी से जो अनुष्ठान किया जाता है, वह अननुष्ठान ही कहलाता है । अतः मोक्षसाधक न होने से उसका त्याग करना चाहिए ॥१५॥ अकामनिर्जरांगत्वं कायक्लेशादिहोदितम् । सकामनिर्जरा तु स्यात् सोपयोगप्रवृत्तितः ॥१६॥
भावार्थ : इस अनुष्ठान में उठना-बैठना, उग्रविहार आदि का कायक्लेश होने से अत्यधिक शरीरश्रम होने के कारण वह अकामनिर्जरा का निमित्त होती है। अर्थात् मोक्ष के उद्देश्य से उत्पन्न न होने के कारण वह अनुष्ठान मोक्ष का कारण नहीं बनता, इसलिए वह अनुष्ठान (अननुष्ठान) कुछ को मनुष्यगति, कुछ को व्यन्तर आदि गति प्राप्त कराने वाले पुण्य का कारण होने से सांसारिक सुख का निमित्त हो जाता है, ऐसा आप्त पुरुषों ने आगमों में कहा है। किन्तु सकामनिर्जरा यानी मोक्ष के उद्देश्यपूर्वक शुद्ध उपयोगसहित साध्य की दृष्टि से प्रवृत्ति करने पर ही होती है। इसलिए अननुष्ठानरूप अनुष्ठान
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अध्यात्मसार