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भगवन्तों ने सर्वत्र (क्रियाओं के साथ) निदान का निषेध किया है ॥७॥ प्रणिधानाद्यभावेन कर्मानध्यवसायिनः । संमूच्छिम-प्रवृत्ताभमननुष्ठानमुच्यते ॥८॥
भावार्थ : प्रणिधान (मन की एकाग्रता) आदि के अभाव से, अध्यवसायरहित पुरुष का संमूच्छिम की प्रवृत्ति के समान सूने मन से अथवा देखादेखी जो क्रिया होती है, उसे अननुष्ठान कहते हैं ॥८॥ ओघसंज्ञाऽत्र सामान्यज्ञानरूपा निबन्धनम् । लोकसंज्ञा च निर्दोषसूत्रमार्गानपेक्षिणी ॥९॥
भावार्थ : इस अननुष्ठानरूप अनुष्ठान (क्रिया) में प्रवृत्ति का कारण सामान्य ज्ञानरूप ओघसंज्ञा तथा निर्दोष सूत्रमार्ग की अपेक्षारहित लोक संज्ञा हैं ॥९॥ न लोकं नाऽपि सूत्रं, नो गुरुवाचमपेक्षते । अनध्यवसितं किञ्चित् कुरुते चौघसंज्ञया ॥१०॥
भावार्थ : ओघसंज्ञा से प्रवृत्ति करने वाला व्यक्ति लोक की, सूत्र की या गुरुवचन की अपेक्षा नहीं रखता; वह अपनी आत्मा के अध्यवसाय से रहित कुछ न कुछ क्रियादि करता रहता है ॥१०॥ शुद्धस्यान्वेषणे तीर्थोच्छेदः स्यादिति वादिनाम् । लोकाचारादरश्रद्धा लोकसंज्ञेति गीयते ॥११॥ ९८
अध्यात्मसार