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अधिकार दसवाँ
[ सदनुष्ठान] परिशुद्धमनुष्ठानं जायते समतान्वयात् । कतकक्षोदसंक्रान्तेः कलुषं सलिलं यथा ॥१॥
भावार्थ : जैसे कतक (निर्मली) का चूर्ण मैले पानी में डालने से वह निर्मल हो जाता है, वैसे ही समता के योग से अनुष्ठान भी परिशुद्ध हो जाता है ॥१॥ विष-गरोऽननुष्ठानं तद्धेतुरमृतं परम् । गुरुसेवाद्यनुष्ठानमिति पंचविधं जगुः ॥२॥
भावार्थ : गुरुसेवा आदि अनुष्ठान विष, गर, अननुष्ठान तद्धेतु और उत्कृष्ट अमृत के रूप में पाँच प्रकार का कहा गया है ॥२॥ आहारोपधिपूजद्धि-प्रभृत्याशंसया कृतम् । शीघ्रं सच्चित्तहन्तृत्वाद्विषानुष्ठानमुच्यते ॥३॥
भावार्थ : आहार, उपधि, पूजा, ऋद्धि आदि की इच्छा से जो अनुष्ठान (क्रिया) किया जाता है, वह तत्काल शुभ चित्त को हरण करने वाला होने से विषानुष्ठान कहलाता है ॥३॥ स्थावरं जंगमं चाऽपि तत्क्षणं भक्षितं विषम् । यथा हन्ति तथेदं सच्चित्तमैहिकभोगतः ॥४॥
अध्यात्मसार