________________
भावार्थ : अन्यलिंग (जैनसाधकों से भिन्न वेष ) आदि से जो सिद्ध (मुक्त) हुए हैं, उनकी साधना का आधार समता ही रही है, जिस समता से सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र - रूप रत्नत्रय के फल की प्राप्ति होने से भावजैनत्त्व प्राप्त होता है ||२३|| ज्ञानस्य फलमेषैव नयस्थानावतारिणः ।
चन्दनं वह्निनेव स्यात् कुग्रहेण तु भस्म तत् ॥२४॥
भावार्थ : समस्त नयों के अपने-अपने स्थान में स्थापित करने वाले ज्ञान का फल भी यह समता ही है; अन्यथा वह ज्ञान कुग्रह ( कदाग्रह) से उसी प्रकार भस्म हो जाता है, जैसे आग से चन्दन भस्म हो जाता है ||२४|| चारित्रपुरुषप्राणाः समताख्या गता यदि । जनानुधावनावेशस्तदा तन्मरणोत्सवः ॥ २५ ॥
॥२४॥
भावार्थ : चारित्ररूपी पुरुष के समतारूपी प्राण यदि चले जायँ तो मनुष्यों का उसे वंदना करने के लिए दौड़कर पहुंचने का आवेश ही मानो उसकी मृत्यु के महोत्सव सा हो रहा है ॥२५॥
संत्यज्य समतामेकां स्याद्यत्कष्टमनुष्ठितम् । तदीप्सितकरं नैव बीजमुप्तमिवोरे ॥ २६ ॥
भावार्थ : एक समता को छोड़कर जो भी कष्टकारी क्रिया की जाती है, वह ऊसर भूमि में बोये हुए बीज के समान अभीष्ट फल देने वाली नहीं होती ॥२६॥
९४
अध्यात्मसार