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उपायः समतैवेका मुक्तेरन्यः क्रियाभरः । तत्तत्पुरुषभेदेन तस्या एव प्रसिद्धये ॥२७॥
भावार्थ : मुक्ति का एकमात्र उपाय समता है, इसके बिना अन्य सभी क्रिया-कलाप उस उस पुरुष (पात्र) के भेद को लेकर उस समता की सिद्धि के लिए ही हैं ॥२७॥ दिङ्मात्रदर्शने शास्त्रव्यापारः स्यान्न दूरगः । अस्याः स्वानुभवः पारं सामर्थ्याख्योऽवगाहते ॥२८॥
भावार्थ : शास्त्र का व्यापार (प्रवृत्ति) केवल दिशादर्शन के बारे में ही होता है, वह दूर तक साथ नहीं आ सकता । इसलिए समता का सामर्थ्य नामक आत्मानुभव ही इस समता के तीर तक पहुंचाता है ॥२८॥ परस्मात्परमेषा यन्निगूढं तत्त्वमात्मनः । तदध्यात्मप्रसादेन कार्योऽस्यामेव निर्भरः ॥२९॥
भावार्थ : इस कारण यह समता ही आत्मा का पर से भी पर (सर्वोत्कृष्ट) अतिगूढ तत्व है । अतः समता के विषय में अध्यात्म के प्रसाद (प्रताप) से समता पर ही निर्भर होकर उद्यम करना चाहिए ॥२९॥
॥ इति समताधिकारः ॥
अधिकार नौवाँ