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भावार्थ : एकत्व के अध्यवसाय (निश्चय) से, आत्मा के गुणों से और कूटस्थरूप से एकमात्र आत्मा में ही स्थित रहने से जिसका मन आत्मा में ही रमण करता है, उसी की समता को अनुत्तर (सर्वोत्कृष्ट) समझो । अभेदरूप से समस्त आत्माओं में (अभेदग्राही नय की दृष्टि से) एकत्वबुद्धि आ जाने से, आत्मा के ज्ञानादि गुणों में भी भेददृष्टि का त्याग करने से तथा उत्पाद-व्यय आदि की अपेक्षारहित, लोहे के घन की तरह निरन्तर निश्चल एक परिणाम-आत्मस्वरूप परिणामरहने से जिसका मन आत्मारामी बन जाता है, उसी साधक की समता को सर्वोत्कृष्ट समझो ॥९॥ समतापरिपाके स्याद् विषयग्रहशून्यता । यया विशदयोगानां वासीचन्दनतुल्यता ॥१०॥
भावार्थ : समता की परिपक्वता हो जाने से विषयों का आग्रह समाप्त हो जाता है, और उससे निर्मल योग वाले मुनियों में कुल्हाड़ी से छेदन और चन्दन से पूजन दोनों अवस्थाओं में समता आ जाती है ॥१०॥ किं स्तुमः समतां साधो र्या स्वार्थप्रगुणीकृता । वैराणि नित्यवैराणामपि हन्त्युपतस्थुषाम् ॥११॥
भावार्थ : हे साधु ! हम आपकी समता की कितनी स्तुति (प्रशंसा) करें ?, जिस समता को आत्मा के प्रोयजन से अधिकार नौवाँ