________________
मनुष्य को वस्त्र, आभूषण, स्त्री, आहार आदि जो पदार्थ पहले प्रयोजन का साधक होता है, वही पदार्थ निष्प्रयोजन हो जाने पर बाधक बन जाता है, अनिष्ट लगने लगता है। जिस पदार्थ के प्रति द्वेष पैदा होता था, उसी पदार्थ की आवश्यकता होने पर प्रसन्नता होती है। इसलिए प्रियत्व-अप्रियत्व की कल्पना प्रयोजन-अप्रयोजन पर निर्भर करती है। वास्तव में निश्चय से तो कोई भी वस्तु न तो इष्ट (प्रिय) है, और न अनिष्ट ही । अपने मन की कल्पना से ही मनुष्य वस्तु को इष्ट या अनिष्ट मान लेता है । विवेकी साधक को इस कल्पना को छोड़कर समता का स्वीकार करना चाहिए ॥३॥ एकस्य विषयो यः स्यात् स्वाभिप्रायेण पुष्टिकृत् । अन्यस्य द्वेष्यतामेति स एव मतिभेदतः ॥४॥
भावार्थ : जो विषय एक व्यक्ति को अपने अनुकूल अभिप्राय के कारण पुष्टिकारक (रुचिकारक) लगता है, वही विषय दूसरे मनुष्य के अपने अभिप्राय से भिन्न होने के कारण द्वेषरूप (अप्रिय) हो जाता है ॥४॥ विकल्पकल्पितं तस्माद् द्वयमेतन्न तात्विकम् । विकल्पोरमे तस्य द्वित्वादिवदुपक्षयः ॥५॥
___ भावार्थ : इसलिए इष्ट और अनिष्ट ये दोनों विकल्प मनःकल्पित विकल्प है, परमार्थ से (वस्तुतः) ये सत्य नहीं है।
अधिकार नौवाँ