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का ग्रहण (ज्ञान) होता है, तथापि छद्मस्थों को अनेक पर्यायों की प्राप्ति वाला ज्ञान हो जाता है ||३१||
अनेकान्तागमश्रद्धा तथाऽप्यस्खलिता सदा । सम्यग्दृशस्तयैव स्यात् सम्पूर्णार्थ - विवेचनम् ॥३२॥
भावार्थ : फिर भी सम्यग्दृष्टि पुरुष को अनेकान्त से अनुप्राणित आगमों के प्रति सतत् अस्खलित श्रद्धा होती है, और उसी श्रद्धा से सम्पूर्ण अर्थ का विवेचन हो सकता है ||३२|| आगमार्थोपनयनाज्ज्ञानं प्राज्ञस्य सर्वगम् । कार्यादेर्व्यवहारस्तु नियतोल्लेखशेखरः ॥३३॥
भावार्थ : आगम के अर्थों का उपनय-अर्थघटन का आश्रय लेने से बुद्धिमान पुरुष को सर्वगामी ज्ञान हो जाता है और कार्य आदि का व्यवहार तो उसके निश्चय किये हुए उल्लेख के शेखर के समान होता है ||३३||
तदेकान्तेन यः कश्चिद् विरक्तस्याऽपि कुग्रहः । शास्त्रार्थबाधनात् सोऽयं जैनाभासस्य पापकृत् ॥३४॥
भावार्थ : इसलिए जो कोई विरक्त साधक होकर भी एकान्तरूप से एक ही पक्ष का कदाग्रह रखता है, वह कुग्रही है; क्योंकि ऐसा कुग्रही शास्त्र के अर्थ का बाधक होने से जैनाभास और पापकारी होता है ||३४||
॥३४॥
उत्सर्गे वाऽपवादे वा व्यवहारेऽथ निश्चये ।
ज्ञाने कर्मणि वाऽयं चेन्न तदा ज्ञानगर्भता ॥ ३५ ॥
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अध्यात्मसार