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आत्मा को सुसज्जित करता है, उन सभी चिरसंचित गुणों को ममतारूपी (कामनारूपी) राक्षसी एक ही ग्रास में खा जाती है ॥३॥ जन्तुकान्तं पशूकृत्य द्रागविद्यौषधिबलात् । उपायैर्बहुभिः पत्नी ममता क्रीडयत्यहो ॥४॥
भावार्थ : अहो ! ममतारूपी पत्नी अविद्यारूपी औषधि के बल पर जीवरूपी पति को झटपट पशु-सा बनाकर अनेक उपायों से क्रीड़ा कराती है, नचाती है ॥४॥ एकः परभवे याति, जायते चैक एव हि । ममतोद्रेकतः सर्वं सम्बन्धं कलयत्यथ ॥५॥
भावार्थ : जीव परभव में अकेला ही जाता है और अकेला ही पैदा होता है, फिर ममता बढ़ाकर उसके कारण सभी सम्बन्धों को दिमाग में जमा लेता है ॥५॥ व्याप्नोति महती भूमिं वटबीजाद् यथा वटः। तथैकममताबीजाद् प्रपञ्चस्यापि कल्पना ॥६॥
भावार्थ : जैसे वटवृक्ष के एक बीज से पैदा हुआ वटवृक्ष बहुत-सी भूमि को घेर लेता है, वैसे ही ममतारूपी बीज से संसार के विशाल प्रपञ्च की कल्पना होती है ॥६॥ माता पिता मे भ्राता मे, भगिनी वल्लभा च मे । पुत्राः सुता मे मित्राणि ज्ञातयः संस्तुताश्च मे ॥७॥ अधिकार आठवां
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