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अपने प्रियतम को डाल देती है, फिर भी उसके मोह (ममत्त्व) में अंधा विवेकचक्षुरहित पुरुष उसे 'यह मेरी प्रिया है', ऐसा मानकर भोली ही समझता है ॥१६॥ चर्माच्छादितमांसास्थिविण्मूत्रपिठरीष्वपि । वनितासु प्रियत्वं यत्तन्ममत्वविजृम्भितम् ॥१७॥
भावार्थ : स्त्रियों की देह ऊपर से चमड़े से मढ़ी हुई है, तथा मास, हड्डियों, विष्ठा और मूत्र की पिटारी है, फिर भी ऐसी घिनौनी स्त्रियों के प्रति जो प्रीति है, वह केवल ममता का ही विलास है ॥१७॥ लालयन् बालकं तातेत्येवं ब्रूते ममत्ववान् । वेत्ति च श्लेष्मणा पूर्णामंगुलीममृताञ्चिताम् ॥१८॥
भावार्थ : ममतावान् पुरुष अपने पुत्र को लाड़-प्यार करता हुआ, तात (बापू) कहकर बुलाता है; यानी स्वयं उसका पुत्र बन जाता है। और श्लेष्म (लीट) से भरी हुई अपने मुँह में डाली हुई ऊँगली को ममता के कारण घृणा किये बिना अमृत से सनी हुई सुखदायिनी मानता है ॥१८॥ पंकाई मपि निःशंका सुतमंकान्न मुञ्चति । तदमेध्येऽपि मेध्यत्वं जानात्यम्बा ममत्त्वतः ॥१९॥
भावार्थ : मोहित माता अपने पुत्र को कीचड़ या विष्ठा से भरे हुए जानकर भी निःशक होकर अपनी गोद से नीचे नहीं ८२
अध्यात्मसार