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करता है । वे जो भी चीज माँगते हैं, उन्हें खुशी-खुशी लाकर देता है; उस पापकर्म के फलस्वरूप स्वयं अकेला ही नरक में दारुण दुःखों को भोगता है । उन भयंकर दुःखों को सहते समय उसकी सहायता के लिए पुत्रादि कोई भी नहीं आता, उल्टे, पुत्रादि तो उक्त मोहित व्यक्ति द्वारा छोड़कर गए हुए धनमाल को पाकर गुलछर्रे उड़ाते हैं, खूब मौज लूटते हैं, उधर वह बेचारा अकेला नरक में संताप भोगता है । इसलिए सब दुःखों के मूल - ममत्त्व का त्याग करना चाहिए ॥११॥ ममतान्धो हि यन्नास्ति, तत्पश्यति, न पश्यति । जात्यन्धस्तु यदस्त्येतद्भेद इत्यनयोर्महान् ॥१२॥
भावार्थ : जन्मान्ध व्यक्ति तो जो वस्तु विद्यमान है, उसे नहीं देखता, मगर ममतान्ध व्यक्ति, जो वस्तु अविद्यमान है, उसी को अस्तित्वरूप में देखता है । यही बड़ा भारी अन्तर इन दोनों में है ॥१२॥ प्राणाननित्यताध्यानात् प्रेमभूम्ना ततोऽधिकम् । प्राणापहां प्रियां मत्त्वा मोदते ममतावशः ॥१३॥
भावार्थ : ममता के वश होकर प्राणी प्राणों का नाश करने वाली अपनी प्रियतमा को अभिन्न या अनित्य मानता है, इसलिए प्रेमातिशय के कारण प्राणों से भी अधिक मानकर आनन्द मानता है ॥१३॥
१. ' अनित्यता' के बदले कहीं-कहीं 'अभिन्नता' भी पाठ है ।
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अध्यात्मसार