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कलिताऽतिशयोऽपि विबुधानां मदकृद्गुणव्रजः । अधिकं न विदन्त्यमी यतो निजभावे समुदञ्चति स्वतः ॥२४॥
भावार्थ : अतिशय को प्राप्त कोई भी महान् गुणसमूह विद्वज्जनों में अभिमान पैदा करने वाला नहीं होता । क्योंकि उन्हें अपने शुद्ध आत्म स्वभाव में उल्लास (निरतिशय आनन्द) होने से उससे बढ़कर अधिक (अतिशय) किसी को भी नहीं मानते ॥२४॥ हृदये न शिवेऽपि लुब्धता सदनुष्ठानमसंगमंगति । पुरुषस्य दशेयमिष्यते सहजानन्दतरंगसंगता ॥२५॥
भावार्थ : जब योगी का सदनुष्ठान निःसंगता को प्राप्त हो जाता है, तब उनके हृदय में मोक्ष के प्रति भी लुब्धता (आसक्ति) नहीं होती । सहजानन्द की तंरग का संग प्राप्त होने पर साधक के लिए यही दशा इष्ट है ॥२५॥ इति यस्य महामतेर्भवेदिह वैराग्यविलासभृन्मनः । उपयन्ति वरीतुमुच्चकैस्तमुदारप्रकृतिं यशःश्रियः ॥२६॥
भावार्थ : इस तरह इस लोक में जिस महाबुद्धिशाली योगी का वैराग्य-विलास से पूर्ण मन होता है, उस उदारप्रकृतिवाले के निकट मोक्षलक्ष्मी वरण करने के लिए उत्कण्ठापूर्वक सामने आती है ॥२६॥ ॥ इति श्रीमहोपाध्याय-श्रीयशोविजयगणिविरचिते
अध्यात्मसार-प्रकरणे द्वितीयः प्रबन्धः ॥
अधिकार सातवाँ
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