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ये नाम परपर्याया: स्वास्तित्वायोगतो मताः । स्वकीया अप्यमी त्यागस्वपर्याय-विशेषणात् ॥२५॥
भावार्थ : जो परपर्याय हैं, वे सब अपने अस्तित्व के अयोग (असम्बन्ध) से माने गए हैं। वे परपर्याय भी त्यागरूप स्वपर्याय के विशेषण से स्वकीय (स्वपर्यायी) कहलाते हैं ॥२५॥ अतादाम्येऽपि सम्बन्ध-व्यवहारोपयोगतः । तेषां स्वत्वं धनस्येव व्यज्यते सूक्ष्मया धिया ॥ २६ ॥
भावार्थ : आत्मा में उन परपर्यायों की तद्रूपता नहीं है, फिर भी सम्बन्धरूप व्यवहार के कारण वैसा प्रयोग होता है । जैसे धन धनिक के व्यवहार से अलग नहीं दिखता, वैसे ही सूक्ष्मबुद्धि से आत्मा में परपर्यायों का स्वपर्यायत्व मालूम होता है ॥२६॥ पर्यायाः स्युर्मुनेर्ज्ञानदृष्टिचारित्रगोचराः । यथा भिन्ना अपि तथोपयोगाद् वस्तुनो ह्यमी ॥२७॥
भावार्थ : जैसे मुनि के ज्ञान, दर्शन और चारित्र के पर्याय भिन्न होते हुए भी साथ ही रहते हैं, वैसे ही उपयोग की दृष्टि से निश्चयनय से वस्तु के ये अपने-अपने पर्याय होते हैं, व्यवहारनय से तो एक आत्मा ही होती है ॥२७॥ नो चेदभावसम्बन्धान्वेषणे का गतिर्भवेत् ? आधारप्रतियोगित्वे द्विष्ठे न हि पृथक् द्वयोः ॥२८॥
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अध्यात्मसार