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कपिलादि शास्त्रों) आगमों का ज्ञानसम्पादन करके शुद्धमार्ग को पहचान लेती है। उसमें ज्ञानगर्भित वैराग्य प्रगट होता है ॥१७॥ न स्वान्यशास्त्रव्यापारे प्राधान्यं यस्य कर्मणि । नाऽसौ निश्चयसंशुद्धं सारं प्राप्नोति कर्मणः ॥१८॥ ___ भावार्थ : जिस संयमी आत्मा के कार्य में स्व-परशास्त्र के (अनुसार) व्यापार (प्रवृत्ति अनुष्ठान) की प्रधानता (मुख्यता) नहीं है, वह निश्चयदृष्टि से परमार्थशुद्ध कर्म (क्रिया) का सारभूत फल नहीं पाता ॥१८॥ सम्यक्त्वमौनयोः सूत्रे गत-प्रत्यागते यतः । नियमो दर्शितस्तस्मात् सारं सम्यक्त्वमेव हि ॥१९॥
भावार्थ : क्योंकि शास्त्र में यह नियम बताया है कि जो सम्यक्त्व है, वही मौन (मुनित्व) है, और जो मौन है, वही सम्यक्त्व है, इन दोनों का अन्योन्याश्रय (गत-प्रत्यागत) सम्बन्ध है। इस कारण सम्यक्त्व ही सारभूत है ॥१९॥ अनाश्रवफलं ज्ञानमव्युत्थानमनाश्रवः । सम्यक्त्वं तदभिव्यक्तिरित्येकत्वविनिश्चयः ॥२०॥
भावार्थ : ज्ञान का फल आश्रवरहित होना है, और अनाश्रव (आश्रवत्याग) का फल है-विषयों के प्रति अनासक्ति। इन दोनों की अभिव्यक्ति (प्रकट होना) ही सम्यक्त्व है। इस प्रकार इन दोनों की अभिन्नता (एकत्व) का निश्चय है ॥२०॥
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अध्यात्मसार