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बातों के सम्बन्ध में मूक, अंधे और बहरे के समान चेष्टा, अपने में या आत्मा के गुणों को बढ़ाने के अभ्यास के लिए उतना और वैसा ही उत्साह, जितना और जैसा उत्साह निर्धन को धन कमाने के लिए होता है; तथा कामदेव के उन्माद (कामोत्तेजना) का वमन (त्याग), जातिकुलादि अष्ट मदसमूह का मर्दन (मार देना), असूया (दोषदृष्टि तथा डाह) के अंशमात्र (तन्तु) का भी उच्छेद, समतारूपी सुधा में डुबकी लगाना, सदैव अपने चिदानन्दमय स्वभाव में अविचल (अटल) रहना, यह लक्षणावली तृतीय वैराग्य (ज्ञानगर्भित वैराग्य) की मानी गई है ॥४०-४१-४२-४३॥ ज्ञानगर्भमिहादेयं द्वयोस्तु स्वोपमर्दतः । उपयोगः कदाचित् स्यानिजाध्यात्मप्रसादतः ॥४४॥
भावार्थ : पूर्वोक्त तीनों प्रकार के वैराग्यों में से ज्ञानगर्भित वैराग्य ही यहाँ उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है; बाकी के दोनों प्रकार के वैराग्यों का अपने-अपने अपमर्दन (नाश) को लेकर अपने अध्यात्म के प्रसाद कृपा से कदाचित् उपयोग हो सकता है।
॥ इतिवैराग्यभेदाधिकारः॥
अधिकार छठा
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