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भावार्थ : यदि यह कदाग्रह उत्सर्ग के विषय में, अपवाद के विषय में, व्यवहार या निश्चय के सम्बन्ध में हो, अथवा ज्ञान के विषय में या क्रिया के विषय में हो, तो वह ज्ञानगर्भित वैराग्य कहलाता ही नहीं है ॥३५॥ नयेषु स्वार्थसत्येषु मोघेषु परचालने । माध्यस्थ्यं यदि नायातं, न तदा ज्ञानगर्भता ॥३६॥
भावार्थ : अपने-अपने अर्थ के विषय में सभी नय सत्य हैं, तथा पर का विचार करने में अनर्थक (असत्य) हैं; इस प्रकार सभी नयों के विषय में जब तक मध्यस्थता नहीं आई, तब तक समझना चाहिए कि ज्ञानगर्भित वैराग्य नहीं है ॥३६॥ स्वागमेऽन्यागमार्थानां शतस्येव परार्धके । नावतारबुधत्वं चेन्न तदा ज्ञानगर्भता ॥३७॥
भावार्थ : जैसे परार्ध की संख्या में सौ की संख्या का समावेश हो जाता है, वैसे ही स्वागमों (जैनागमों) में अन्यदर्शनीय आगमों के विषयों का समावेश करने (घटाने) का बुद्धिकौशल न हो तो उस साधक में ज्ञानगर्भित वैराग्य नहीं है, ऐसा मानना चाहिए ॥३७॥ आज्ञयागमिकार्थानां यौक्तिकानां च युक्तितः । न स्थाने योजकत्वं चेन्न तदा ज्ञानगर्भता ॥३८॥
अधिकार छठा
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