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भावार्थ : क्योंकि उनका शुभ परिणाम भी संसार-मोचकादि मत वालों के परिणाम की तरह तात्त्विक नहीं होता; और न ही उनकी वीतराग की आज्ञा में रुचि स्थिर हुई होती है ॥१०॥ अमीषां प्रशमोऽप्युच्चैर्दोषपोषाय केवलम् । अन्तर्निलीनविषमज्वरानुद्भवसन्निभः ॥११॥
भावार्थ : मोहगर्भित वैराग्य वाले में प्रशमभाव होता है, लेकिन वह होता है, दोषों के पोषण के लिए ही, क्योंकि उसके अन्तरंग में तो मिथ्यात्व होता है। जैसे अन्तरंग में दबा हुआ विषमज्वर हो तो वह शरीर के धातुओं का शोषण करता रहता है। उसके द्वारा औषधिसेवन भी दोषों के पोषण के लिए होता है; वैसे ही अन्तरंग (अप्रकट) मिथ्यात्व से युक्त साधक के प्रशम (कषायोपशान्ति) का गुण भी दोषपोषक होता है ॥११॥ कुशास्त्रार्थेषु दक्षत्वं शास्त्रार्थेषु विपर्ययः । स्वच्छन्दता कुतर्कश्च गुणवत्संस्तवोज्झनम् ॥१२॥ आत्मोत्कर्षः परद्रोहः कलहो दम्भजीवनम् । आश्रवाच्छादनं शक्त्युल्लङ्घनेन क्रियादरः ॥१३॥ गुणानुरागवैधुर्यमुपकारस्य विस्मृतिः । अनुबन्धाद्यचिन्ता च प्रणिधानस्य विस्मृतिः ॥१४॥ श्रद्धा मृदुत्वमौद्धत्यमधैर्यमविवेकिता । वैराग्यस्य द्वितीयस्य स्मृतेयं लक्षणावली ॥१५॥ ५८
अध्यात्मसार